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ओष॑धी॒रिति॑ मातर॒स्तद्वो॑ देवी॒रुप॑ ब्रुवे। स॒नेय॒मश्वं॒ गां वास॑ऽआ॒त्मानं॒ तव॑ पूरुष ॥७८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ओष॑धीः। इति॑। मा॒त॒रः॒। तत्। वः॒। दे॒वीः॒। उप॑। ब्रु॒वे॒। स॒नेय॑म्। अश्व॑म्। गाम्। वासः॑। आ॒त्मान॑म्। तव॑। पू॒रु॒ष॒। पु॒रु॒षेति॑ पुरुष ॥७८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:78


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पिता और पुत्र आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ओषधीः) ओषधियों के (इति) समान सुखदायक (देवीः) सुन्दर विदुषी स्त्री (मातरः) माता ! मैं पुत्र (वः) तुम को (तत्) श्रेष्ठ पथ्यरूप कर्म्म (उपब्रुवे) समीपस्थित होकर उपदेश करूँ। हे (पूरुष) पुरुषार्थी श्रेष्ठ सन्तान ! मैं माता (तव) तेरे (अश्वम्) घोड़े आदि (गाम्) गौ आदि वा पृथिवी आदि (वासः) वस्त्र आदि वा घर और (आत्मानम्) जीव को निरन्तर (सनेयम्) सेवन करूँ ॥७८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे जौ आदि ओषधी सेवन की हुई शरीरों को पुष्ट करती हैं, वैसे ही माता विद्या, अच्छी शिक्षा और उपदेश से सन्तानों को पुष्ट करें। जो माता का धन है, वह भाग सन्तान का और जो सन्तान का है, वह माता का, ऐसे सब परस्पर प्रीति से वर्त्त कर निरन्तर सुख को बढ़ावें ॥७८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पित्रपत्यानि परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(ओषधीः) (इति) इव (मातरः) जनन्यः (तत्) कर्म (वः) युष्मान् (देवीः) दिव्या विदुषीः (उप) समीपस्थः सन् (ब्रुवे) उपदिशेयम् (सनेयम्) संभजेयम् (अश्वम्) तुरङ्गादिकम् (गाम्) धेन्वादिकं पृथिव्यादिकं वा (वासः) वस्त्रादिकं निकेतनं वा (आत्मानम्) जीवम् (तव) (पूरुष) प्रयत्नशील ॥७८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे ओषधीरिति देवीर्मातरोऽहं तनयो वस्तत्पत्थ्यं वच उपब्रुवे। हे पुरुष ! सुसन्तानाऽहं माता तवाश्वं गां वास आत्मानं च सततं सनेयम् ॥७८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा यवादय ओषधयः सेविताः शरीराणि पुष्यन्ति, तथैव जनन्यो विद्यासुशिक्षोपदेशेनाऽपत्यानि सुपोषयेयुः। यन्मातुरैश्वर्यं तद्दायोऽपत्यस्य यदपत्यस्यैतन्मातुरस्ति, एवं सर्वे सुप्रीत्या वर्त्तित्वा परस्परस्य सुखानि सततं वर्धयेयुः ॥७८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे जव इत्यादी धान्य व औषधी खाल्ल्याने शरीर पुष्ट होते, तसेच मातेने विद्या, चांगले शिक्षण व उपदेश यांनी संतानांना पुष्ट करावे. जे मातेचे पैतृक धन आहे ते संतानांचे असते व जे संतानाचे असते ते मातेचे होय. अशा प्रकारे सर्वांनी परस्पर प्रेमाने राहून निरंतर सुख वाढवावे.